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दलित हिंसा: तमाम क़ानूनों के बावजूद क्यों नहीं लगती लगाम

 

दलित हिंसा: तमाम क़ानूनों के बावजूद क्यों नहीं लगती लगाम

कमलेश

चेहरा नीच करके बैठीं एक महिलाइमेज स्रोत,© HINDUSTAN TIMES VIA GETTY IMAGES

चेहरा नीच करके बैठीं एक महिला


दलित युवकों की डंडों से की पिटाई... दलित लड़की के साथ रेप... दलितों के मंदिर में घुसने पर रोक... जातिगत उत्पीड़न और भेदभाव की ऐसी ख़बरें नई नहीं लगतीं.


पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के हाथरस में 19 साल की एक दलित युवती के साथ कथित गैंगरेप और हत्या का मामला भी ऐसी ही एक सुर्खी बनकर आया.


और एक बार फिर दलितों के उत्पीड़न पर सवाल उठने लगे. कहा गया कि आज़ादी के 73 सालों बाद भी आज दलित सामनता के लिए संघर्ष कर रहे हैं.


हर साल कई ऐसे घटनाएं होती हैं जो दलितों के ख़िलाफ़ हिंसा की कहानी बयां करती हैं.


राजस्थान में डंगावास में दलितों के ख़िलाफ़ हिंसा (2015), रोहित वेमुला (2016), तमिलनाडु में 17 साल की दलित लड़की का गैंगरेप और हत्या (2016), तेज़ म्यूज़िक के चलते सहारनपुर हिंसा (2017), भीमा कोरेगांव (2018) और डॉक्टर पायल तड़वी की आत्महत्या (2019), इन मामलों की पूरे देश में चर्चा हुई लेकिन सिलसिला फिर भी रुका नहीं.


इस बात की तस्दीक़ करते हैं राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के हालिया आंकड़े, जो बताते हैं कि दलितों के ख़िलाफ़ अत्याचार के मामले कम होने के बजाय बढ़े हैं.


2019 में बढ़े दलितों पर अत्याचार के मामले


एनसीआरबी ने हाल ही में भारत में अपराध के साल 2019 के आँकड़े जारी किए जिनके मुताबिक अनुसूचित जातियों के साथ अपराध के मामलों में साल 2019 में 7.3 प्रतिशत की वृद्धि हुई है.


जहां 2018 में 42,793 मामले दर्ज हुए थे वहीं, 2019 में 45,935 मामले सामने आए.


इनमें सामान्य मारपीट के 13,273 मामले, अनुसूचित जाति/ जनजाति (अत्याचार निवारण) क़ानून के तहत 4,129 मामले और रेप के 3,486 मामले दर्ज हुए हैं.


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सिर पर हाथ रखकर बैठा व्यक्तिइमेज स्रोत,HINDUSTAN TIMES VIA GETTY IMAGES

राज्यों में सबसे ज़्यादा मामले 2378 उत्तर प्रदेश में और सबसे कम एक मामला मध्य प्रदेश में दर्ज किया गया.

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इसके अलावा जम्मू और कश्मीर, मणिपुर, मेघालय, मिज़ोरम, नागालैंड और त्रिपुरा में एससी/एसटी अधिनियम में कोई मामला दर्ज नहीं किया गया है.


अनुसूचित जनजातियों के ख़िलाफ़ अपराध में साल 2019 में 26.5 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है.


जहां 2018 में 6,528 मामले सामने आए थे वहीं, 2019 में 8,257 मामले दर्ज हुए हैं.


दलितों के साथ भेदभाव के मामले भारत ही नहीं बल्कि विदेशों में भी सामने आ रहे हैं.


कैलिफ़ोर्निया के डिपार्टमेंट ऑफ़ फ़ेयर इंप्लायमेंट और हाउसिंग ने सिस्को कंपनी में एक दलित कर्मचारी के साथ जातिगत भेदभाव करने के चलते 30 जून को मुक़दमा दर्ज कराया था.


इसके एक दिन बाद अमरीका स्थित आंबेडकर किंग स्टडी सर्किल (एकेएससी) ने 60 भारतीयों के साथ हुए जातिगत असमानता के अनुभवों को प्रकाशित किया था.


अमरीकी कंपनी सिस्को में एक दलित कर्मचारी के साथ कथित भेदभाव

क़ानून में प्रावधान

भारत में दलितों की सुरक्षा के लिए अनुसूचित जाति/ जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 मौजूद है.


इसके तहत एससी और एसटी वर्ग के सदस्यों के ख़िलाफ़ किए गए अपराधों का निपटारा किया जाता है.



डॉक्टर भीमराव अंबेडकर की तस्वीरेंइमेज स्रोत,GETTY IMAGES

इसमें अपराधों के संबंध में मुकदमा चलाने और दंड देने से लेकर पीड़ितों को राहत एवं पुनर्वास देने का प्रावधान किया गया है.


साथ ही ऐसे मामलों के तेज़ी से निपटारे के लिए विशेष अदालतों का गठन भी किया जाता है.


इसके अलावा अस्पृश्यता पर रोक लगाने के लिए अस्पृश्यता (अपराध) अधिनियम, 1955 बनाया गया था जिसे बाद में बदलकर नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम कर दिया गया.


इसके तहत छुआछूत के प्रयोग एवं उसे बढ़ावा देने वाले मामलों में दंड का प्रावधान है.


लेकिन जानकार बताते हैं, कुछ मामले तो मीडिया और राजनीतिक पार्टियों के हस्तक्षेप के कारण सबकी नज़र में आ जाते हैं लेकिन कई तो पुलिस थानों में दर्ज़ भी नहीं हो पाते.


ऐसे में समस्या कहां है, क्या क़ानून कमज़ोर है या उसे बनाने और लागू करने वालों की इच्छा शक्ति में कमी है?


‘’जागरूकता की कीमत’’


दलित आंदोलनइमेज स्रोत,GETTY IMAGES

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दिनभर

दिनभर: पूरा दिन,पूरी ख़बर (Dinbhar)

वो राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय ख़बरें जो दिनभर सुर्खियां बनीं.


दिनभर: पूरा दिन,पूरी ख़बर

समाप्त

दलित हिंसा के लिए जानकार सामाजिक और राजनीतिक कारणों को ज़िम्मेदार मानते हैं.


दलित चिंतक चंद्रभान प्रसाद इसे दलितों में आ रही जागरूकता और मज़बूती की कीमत बताते हैं.


वो कहते हैं, “पहले दलितों पर हिंसक हमले नहीं होते थे. पहले छोटी-मोटी मारपीट की घटनाएं होती थीं. लेकिन, हिंसक वारदातें पिछले 10-15 सालों में बढ़ी हैं. जैसे-जैसे दलितों की तरक्की हो रही है वैसे-वैसे उन पर हमले बढ़ रहे हैं. यह क़ानूनी समस्या नहीं है बल्कि सामाजिक समस्या है."


चंद्रभान प्रसाद बताते हैं कि अमरीका में एक समय पर काले लोगों की चौराहों पर लिंचिंग होने लगी थी और यह सिलसिला 50 साल तक चला था.


उन्होंने बताया, "अमरीका में काले लोगों लिंचिंग तब शुरू होती है जब एक जनवरी, 1863 को अब्राहम लिंकन दासता उन्मूलन की घोषणा करते हैं. यानी जब तक काले किसी के गुलाम थे तब तक सुरक्षित थे क्योंकि वे किसी की संपत्ति थे. उनकी लिचिंग गुलामी के दौरान नहीं होती थी, उन पर किसी तरह की हिंसा होती भी थी तो केवल मालिक ही कर सकता था. कोई दूसरा गोरा आदमी आकर उनपर हमला नहीं कर सकता था क्योंकि मालिक अपनी संपत्ति की रक्षा करता था."


"जब काले लोगों को आज़ादी मिली तब उनकी लिंचिंग शुरू हुई. ठीक उसी तरह से भारत में संविधान और विभिन्न संस्थाओं के चलते जो आज़ादी दलितों को पिछले 73 साल में मिली है, उन्हें उसका मूल्य चुकाना पड़ रहा है और ये हिंसा आने वाले दिनों में बढ़ेगी."


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वहीं, दलित नेता उदित राज कहते हैं कि सबसे पहले लोगों को ये स्वीकार करना होगा कि जातिगत भेदभाव होता है क्योंकि आज कई पढ़े-लिखे लोग भी ये मानने को तैयार नहीं होते.


उदित राज बीजेपी पर आरोप लगाते हैं कि सरकार निजीकरण लाकर आरक्षण की व्यवस्था ख़त्म करके इस असमानता को और बढ़ा रही है.


वो कहते हैं,"मौजूदा सरकार में नौकरशाहों के बीच डर ख़त्म हुआ है. जब नेताओं को ही दलितों की चिंता नहीं होगी तो इसका दबाव नौकरशाही पर कैसे बनाएंगे. "


दलित रैलीइमेज स्रोत,GETTY IMAGES

ख़ाली पड़े अहम पद


टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग, राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग और राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग में अध्यक्ष पद लंबे समय से खाली पड़े हैं.


सरकार की ओर से इन पर कोई नियुक्ति नहीं की गई है. ये संस्थाएं अनुसूचित जाति और जनजातियों के ख़िलाफ़ हो रहे अत्याचार पर नज़र रखती हैं.


अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति आयोगों की वेबसाइट पर भी अध्यक्ष के अलावा कई अन्य पद वैकेंट (रिक्त) दिखाई देते हैं.


उदित राज कहते हैं, “इन संस्थाओं की ऐसी स्थिति सरकार की इनके प्रति गंभीरता को दिखाती है. अगर सरकार वाकई दलितों को लेकर चिंतित होती तो क्या इतने महत्वूपर्ण पद भरे नहीं जाते? एक तरह से आप इन संस्थाओं को कमज़ोर ही कर रहे हैं.“


“पहले ही ये संस्थाएं बहुत ताकतवर नहीं हैं. इनके पास ना तो वित्तीय ताकत है और ना ही नियुक्तियां करने की स्वतंत्रता. इस कामों में सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय की भूमिका होती है. लेकिन, फिर भी ये संस्थाएं दबाव बनाने का काम करती हैं और ऐसे मामलों में पुलिस-प्रशासन से जवाब मांग सकती हैं.”


दलित रैलीइमेज स्रोत,GETTY IMAGES

हर स्तर पर भेदभाव


उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशकवीएन राय का मानना है कि समस्या क़ानून में नहीं बल्कि उनके क्रियान्वयन में है.


वीएन राय कहते हैं, “हमारे देश में क़ानून तो बहुत हैं लेकिन समस्या सामाजिक मूल्यों की है. अब भी ऊंची जाति के लोग दलितों को मनुष्यों का और बराबरी का दर्जा देने के लिए तैयार नहीं हैं. इसमें परिवर्तन हो रहा है लेकिन वो बहुत धीमा है.


“मीडिया, पुलिस महकमा, न्याय व्यवस्था सब जगह सोचने का तरीका अभी पूरी तरह बदला नहीं है. पुलिस स्टेशन पहली जगह है जहां कोई पीड़ित जाता है लेकिन कई बार वहां पर उसे बेरुखी मिलती है. न्याय पाना गरीबों के लिए हमेशा मुश्किल होता है और दलितों का एक बड़ा वर्ग आर्थिक रूप से कमज़ोर है.”


पुलिसइमेज स्रोत,GETTY IMAGES


वीएन राय सुझाव देते हैं कि इसमें बदलाव के लिए सबसे पहले दलितों की आर्थिक स्थिति में सुधार किए जाने की ज़रूरत है.


वो कहते हैं कि गांवों में ज़मीन या संपत्ति का बंटवारा होना चाहिए ताकि वो भी आर्थिक तौर पर मजबूत हो सकें. इसके अलावा अंतरजातीय विवाह को बढ़ावा देना भी ज़रूरी है जिससे जाति की बेड़ियां टूट सकें.


पुलिस में क्या सुधार हो? इसके जवाब में वो कहते हैं कि पुलिस के व्यवहार में सुधार की बहुत ज़रूरत है, अपराध दर्ज कर कार्रवाई करना ही काफी नहीं है बल्कि ये काम संवेदनशीलता और गंभीरता के साथ किया जाना भी ज़रूरी है.

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